भीष्म

आकर्षक व्यक्तित्व के थे धनी
वीरों के वीर थे वह शूरवीर,
धवल हिम सा सरल हृदय
श्वेत वस्त्र में झलकता था धीर ।

ज्ञानियों के ज्ञानी थे महा ज्ञानी
विवेक, बुद्धि से व्यक्तित्व था भरपूर,
पिता के लिए था अत्यंत श्रद्धा हृदय में
जो बनाती थी उनको मानव में सुर ।

जन्म लिया मां गंगा की कोख से
सीखी धनुर्विद्या गुरु परशुराम से,
गुरु बृहस्पति से सीखी राजनीति
जाना गया वह देवव्रत के नाम से ।

हस्तिनापुर थी उनकी दूसरी माता
जिसके लिए समर्पित था पूरा जीवन,
बंधकर एक दिन भीष्म प्रतिज्ञा से
कर न सके कर्तव्यों का उचित आंकलन ।

पूर्ण करने मनोकामना पिता शांतनु की
मत्स्यकन्या सत्यवती को दिया वचन,
“पालन करूंगा आजीवन ब्रह्मचारी व्रत”
पितृ आज्ञा का रखूंगा मान संपूर्ण जीवन।

माता सत्यवती का पुत्र बनेगा राजा
रखूंगा हस्तिनापुर सिंहासन सुरक्षित
सेवा के लिए तत्पर रहूंगा सदा मैं
करेगा जो सिंहासन को सुशोभित।

सत्यवती पुत्र विचित्रवीर्य के विवाह हेतु
अंबा,अंबिका,अंबालिका का किया हरण,
निंदनीय कार्य था वह एक भीष्म का
किया अपने असीम शक्ति का प्रदर्शन ।

शोभा नहीं देता किसी वीर पुरुष को
बल पूर्वक करना किसी नारी का हरण,
स्वरूप नहीं था वह धार्मिक कार्य का
था हठधर्मिता का एक उदाहरण ।

नेत्रहीन धृतराष्ट्र के विवाह हेतु
गांधार नरेश से मांगा पुत्री का हाथ,
अनिच्छा से दी सहमति नरेश ने
भयभीत होकर गांधारी ने दिया साथ।

पर शकुनी अप्रसन्न था विवाह से
पी ना सका विष यह अपमान का,
उसके अहम को लगी थी चोट बड़ी
जल उठा मन दावानल प्रतिशोध का।

नेत्रहीन से अपनी बहन का विवाह
कैसे वह स्वीकार कर सकता था,
गांधारी का निर्णय ना भाया उसे
बहन से स्नेह बहुत वह करता था ।

बलशाली राज्य के समक्ष नहीं था
किसी छोटे राज्य का कोई मोल,
प्रतिकार का साहस नहीं गांधार नरेश में
ना ही गांधारी के मुख से निकली बोल।

गांधारी आई हस्तिनापुर विवाह के पश्चात
उसके साथ में आया था भ्राता शकुनी,
भभक रही थी प्रतिशोध की ज्वाला मन में
मुख पर उसके रहती सदा मधुर वाणी।

संग में कुरुक्षेत्र की पग ध्वनि लेकर
हस्तिनापुर में गांधारी ने किया प्रवेश,
समय स्पष्ट देख रहा था सब कुछ
पांडव व कौरव का भविष्य का क्लेश।

नेत्रहीन धृतराष्ट्र को सौंपना राजमुकुट
पांडु के पश्चात, थी एक बड़ी भूल,
धृतराष्ट्र की छत्रछाया में दुर्योधन के
महत्वाकांक्षा विष वृक्ष रहा था फल-फूल।

यदि सुन लेते विदुर की बात भीष्म
शोभायमान होता शीर्ष राजमुकुट,
ना होता फिर द्रौपदी वस्त्र हरण
ना होता उत्पन्न कुरुक्षेत्र दृश्य विकट।

ना दुर्योधन को मिलती पितृ छत्रछाया
ना महत्वाकांक्षा का वृक्ष फलता फूलता,
ना होता पांडव के साथ भीषण अन्याय
ना वाराणावत में लाक्षागृह जलता ।

बिलखती द्रौपदी को दिया ना सहारा
नहीं किया व्यभिचार का प्रतिकार,
धिक्कार है ऐसे वीरों के विरत्व को
खंडित ना कर पाया दुर्योधन का अहंकार।

नहीं होती कभी कोई भी प्रतिज्ञा बड़ी
किसी नारी की मर्यादा से बढ़कर,
कैसे देख पाई थी बूढ़ी आंखें, विभत्स
वस्त्र हरण का दृश्य मौन रहकर ।

क्यों नहीं वध किया दुर्योधन का
धनुष में अपने बाण चढ़ाकर,
वीरत्व का परिचय दिया होता
सभा मध्य हुंकार भरकर।

अधर्मियों का साथ देकर तुम
जीवन भर पश्चाताप अग्नि में जले,
ऐसी भीषण प्रतिज्ञा कोई ना करें
ना किसी के मन में ऐसी भावना पले।

आने वाली पीढ़ी को तुम दे गए
यह अनमोल ज्ञान और संदेश,
प्रतिज्ञा से बड़ा होता है मानव धर्म
स्वयं के मान से होता है बड़ा देश ।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

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